चकिया:पीएम आवास के लाभार्थी को बिना सूचना व नोटिस के ही लेखपाल ने गिरवा दिया सरकारी धन से निर्मित निर्माणाधीन मकान,पीड़िता की फरियाद नहीं सुन रहे अधिकारी 

संवाददाता कार्तिकेय पाण्डेय

चकिया। तहसील क्षेत्र के शहाबगंज विकासखंड क्षेत्र के बराव गांव निवासिनी सलाम पत्नी बुल्लू को प्रधानमंत्री आवास आवंटित किया गया था। प्रार्थिनी अभिलेख में नवीन प्रति दर्ज आराजी नंबर 134 मौजा सिहोरिया में कई वर्षों पूर्व से काबिज है। जिस पर वह वर्तमान में सरकार की तरफ से मिले प्रधानमंत्री आवास के सरकारी धन से नीव व पिलर बनाकर आवास का निर्माण कर रही थी जो डोर लेवल से ऊपर तक कार्य हो चुका था। लेकिन विपक्षी इलिया गांव निवासी वीरमचंद्र साव द्वारा आराजी नंबर 137 में बढ़कर आवास बनाने को लेकर विरोध करते हुए शिकायत की गई। इसके बाद मामला कोर्ट में पहुंचा जिसमें वीरमचंद्र गुप्ता बनाम शराफुद्दीन दाखिल करके स्थगन आदेश प्राप्त कर लिया है। लेकिन बावजूद इसके पीड़िता लाभार्थी को विपक्षी द्वारा परेशान किया जा रहा है। पीड़िता सल्लम ने बताया कि विपक्षी काफी दबंग किस्म का व्यक्ति है। जिनकी राजनीतिक पकड़ भी है। और सफेद पोशों से मिलकर राजनीतिक दबाव बनाकर अधिकारियों द्वारा परेशान कर रहा है और गुहार लगने के बाद भी अधिकारी हमारी एक भी नहीं सुन रहे हैं। जबरदस्ती लेखपाल अखिलेश कुमार और कानूनगो ने मौके पर बिना हमको सूचना और बिना नोटिस दिए ही पहुंच कर सरकारी धन से बने प्रधानमंत्री आवास को सूचना और बिना नोटिस दिए ही पहुंच कर सरकारी धन से बने अर्ध निर्मित प्रधानमंत्री आवास को ढहवा दिया। जब इसकी शिकायत लेकर वह तहसीलदार के पास पहुंचा तो उन्होंने पीड़िता को डाटकार कर भगा दिया।

पीड़िता सल्लम ने बताया कि एसडीएम द्वारा मामले में जांच कर कार्रवाई करने के साथ ही जमीन आवंटित कर प्रधानमंत्री आवास बनवाने के निर्देश दिए गए थे लेकिन तहसीलदार समेत कानूनगो और लेखपाल की हीलाहवाली व राजनीतिक दबाव से अब तक जमीन का आवंटन नहीं किया गया। बल्कि लिखित की बजाय केवल जुबानी तरीके से आवास बनाने की बात कही गई। इसके बाद आवास का निर्माण आधा से अधिक हो जाने के बाद राजनीतिक दबाव में अधिकारियों ने इसे रुकवा दिया। और लेखपाल द्वारा बिना नोटिस जारी किए व बगैर सूचना के पहुंचकर टीम के साथ सरकारी धन से बने आवास को गिरवा दिया। जिससे अब हमें खुले आसमान के नीचे रहने को मजबूर होना पड़ रहा है और तहसील के अधिकारी सुनने को मजबूर नहीं है।

हालांकि अब देखना होगा की मामले में संबंधित अधिकारी क्या कार्रवाई कर पाते हैं। क्या पीड़िता के साथ कोई न्याय हो पाता है और अधिकारियों के लीपापोती में नुकसान हुए सरकारी धन का भरपाई हो पता है या फिर इसी तरह पीड़िता को उच्चाधिकारियों के कार्यालयों का चक्कर काटना पड़ता है।