चंदौली -महिला सशक्तिकरण एवं महिला सम्मान का सपना उस दिन सार्थक होगा जिस दिन इन शब्दो का प्रयोग बन्द हो जाएगा- सारिका दुबे

महिला सशक्तिकरण एवं महिला सम्मान का सपना उस दिन सार्थक होगा जिस दिन इन शब्दो का प्रयोग बन्द हो जाएगा- सारिका दुबे

संवाददाता कार्तिकेय पांडेय

चंदौली- राजनीति विमर्श में भले ही महिलाओं की भागीदारी को बढ़ा चढ़ा कर पेश किया गया हो परंतु इसके उलट असल जिंदगी में झांके तो अवसरवादीता,लैंगिक भेदभाव और अति पुरुषवादी विमर्श हावी होता है।नारी जागरण,महिला सशक्तिकरण जैसे शब्द सुनने में जितने अच्छे लगते हैं हकीकत में इसकी सच्चाई कुछ और ही होती है। भले ही मिशन शक्ति के नाम पर महीनों कार्यक्रम चलाए जाते हैं महिला सशक्तिकरण के नाम पर नारी जागरूकता के आवाज बुलंद किए जाते है।लेकिन समाज में महिलाओं की जो स्थिति है उसे गहराई से समझने की जरूरत है। 8 मार्च को महिला दिवस के अवसर पर अमूमन हर स्कूल कॉलेज विश्वविद्यालय में नारी शक्ति,नारी जागरण,नारी सुरक्षा, स्वालंबन और स्वाभिमान के नारे बुलंद किए जाते हैं।कोई कहता है नारी शक्ति का रूप है तो कैसे सृष्टि के सृजन माध्यम है ये बताता है परंतु,जब बात पितृसत्ता की आती है।तो नारी को पीछे रखा जाता है।किसी भी लड़की को बचपन में ही सीखा दिया जाता है कि कम बोलो,धीरे बोलो, मर्दो के बीच मत बोलो,ऐसे रहो वैसे रहो वह एक लड़की है और पुरषो के अपेक्षा कमजोर है,

*"पढ़ के क्या करेगी चूल्हा चौका ही तो करना है"* *" ज़्यादा मेवा,घी ख़ाके क्या करेगी? कौन सा खेत में हल चलाना है"*
यह बात उसे बालपन में ही समझा दी जाती है।
मानव जीवन के दो मुख्य स्तंभ हैं-पुरुष एवं स्त्री।दोनों बराबर जिम्मेदारियां साझा करते हैं और दोनों एक दूसरे के पूरक भी हैं।भारतीय लोकतंत्र ने भी इन दोनों को बराबर के अधिकार दिए। भारतीय लोकतंत्र जनता की भागीदारी को सर्वोच्च एवम् सम्पूर्ण मानता है ।
आज के समय में जब भी भारत देश का नाम लिया जाता है तो सबसे पहला ख्याल आता है यहां का लोकतंत्र ।लोकतंत्र अथवा प्रजातंत्र(शाब्दिक अर्थ ?जनता का शासन)मुख्य रूप से एक ऐसी शासन व्यवस्था है जो ?जनता द्वारा,जनता के लिए,जनता का शासन? है।जिसमें सभी वर्गों, जातियों,समुदायों के लोगों की बराबर की भागीदारी होती है। पर खुद से पूंछे क्या ऐसा वास्तव में हो रहा है?
आज हर गली ,हर नुक्कड़ ,हर चौराहे पर चुनाव की सरगर्मी बढ़ी हुई है। बच्चे से लेकर बूढ़े तक सिर्फ इस बात की चर्चा की कौन किसपे कितना भारी है?कौन किसको पटकनी देगा?
वैसे तो सरकार द्वारा चुनाव के पदों पर महिला आरक्षण का लॉलीपॉप थमा दिया गया है,परंतु "सबको पता है यहाँ के जन्नत की हकीकत"
अब जहां महिला सीट आ गई है ,वहां के पुरुष अपनी घर की महिलाओं को आगे खड़ा करके स्वंय मैदान में सीना तान कर खड़े हो गए है। हां मै उन्हीं महिलाओं की बात कर रही जिन्हें घर की इज्ज़त की दलील देके कभी घर से बाहर भी न निकाला गया हो, परन्तु इस राजनीति के युद्ध में सब जायज है। समस्या इस बात का है कि फिर इस महिला आरक्षण का स्वांग क्यों? जब पुरुष को ही अप्रत्यक्ष रूप से चुनाव लड़ना है?
प्रारंभ से ही विभिन्न समाज की महिलाओं को दबाने का हर संभव प्रयास किया जाता था।
यहां तक कि उन्हें मूलभूत मौलिक अधिकारों से भी वंचित रखा गया।भारत में संसद में महिला प्रतिनिधित्व की स्थिति ठीक नहीं है।इस मामले में भारत 193 देशों की सूची में 149वें स्थान पर आता है।भारत की चुनावी राजनीति में महिलाओं की भागीदारी उनके अनुपात से कम होना स्वस्थ लोकतंत्र के लिहाज से चिंता का विषय है। इसका एक मुख्य कारण भारत की पितृ ? सत्तात्मक व्यवस्था है , जिसका प्रभाव महिलाओं के प्रतिनिधित्व पर पड़ा है ।
अंत में मुझे बस इतना ही कहना है कि महिला सशक्तिकरण एवं महिला सम्मान का सपना उस दिन सार्थक होगा जिस दिन इन शब्दो का प्रयोग बन्द हो जाएगा