पुलिस विभाग और न्यायपालिका में महिलाओं की क्या स्थिति? जानिए कौन से राज्य टॉप पर, इंडिया जस्टिस रिपोर्ट में खुलासा

इंडिया जस्टिस रिपोर्ट की चीफ एडिटर माया दारुवाला कहती हैं, भारत एक लोकतांत्रिक और कानून से चलने वाले देश के तौर पर सौ साल पूरे करने की ओर बढ़ रहा है लेकिन अगर न्याय प्रणाली में सुधार तय नहीं होंगे, तो कानून के राज और समान अधिकारों का वादा खोखला रहेगा.

देश में न्याय-व्यवस्था की गुणवत्ता पर राज्यों की एकमात्र रैंकिंग ?इंडिया जस्टिस रिपोर्ट? (IJR) 2025 आज जारी की गई है. इस रिपोर्ट से खुलासा हुआ है कि भारत के 20.3 लाख पुलिस बल में सीनियर रैंक (सुपरिंटेंडेंट और डायरेक्टर जनरल) में 1000 से भी कम महिला अधिकारी हैं. गैर-आईपीएस अधिकारियों को जोड़ लें, तो यह तादाद सिर्फ 25 हजार के थोड़ा ऊपर है. नॉन-आईपीएस कैटेगरी के कुल 3.1 लाख अधिकारियों में महिलाएं सिर्फ 8% हैं, जबकि पुलिस बल में कार्यरत कुल महिला कर्मियों का 90% हिस्सा कांस्टेबल स्तर पर है.

इस रिपोर्ट में इस बार भी कर्नाटक टॉप पर है, जो 1 करोड़ से ज्यादा आबादी वाले 18 बड़े और मध्यम आकार के राज्यों में पहले स्थान पर बना हुआ है. आंध्र प्रदेश पांचवें स्थान से चढ़कर दूसरे स्थान पर पहुंचा है, तेलंगाना (2022 में तीसरे) और केरल (2022 में छठे) स्थान पर रहे.

दक्षिण भारत के पांच राज्यों ने सभी चार मापदंडों- पुलिस, न्यायपालिका, जेल और कानूनी सहायता-पर तुलनात्मक रूप से बेहतर प्रदर्शन किया. कर्नाटक ऐसा एकमात्र राज्य है, जिसने पुलिस बल (कांस्टेबल और अधिकारी स्तर पर) और जिला न्यायपालिका में एससी, एसटी और ओबीसी के लिए निर्धारित आरक्षण को पूरा किया है. केरल में उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की रिक्तियों की तादाद सबसे कम है. तमिलनाडु के जेलों में बंदियों की दर सबसे कम (77%) है, जबकि राष्ट्रीय औसत 131% से ज्यादा है. पुलिस के मामले में तेलंगाना और आंध्र प्रदेश ने अन्य राज्यों को पीछे छोड़ते हुए क्रमशः पहला और दूसरा स्थान हासिल किया है

सात छोटे राज्यों (जिनकी जनसंख्या एक करोड़ से कम है) में सिक्किम लगातार शीर्ष पर रहा (2022 में भी पहले स्थान पर था). इसके बाद हिमाचल प्रदेश (2022 में छठे स्थान पर) और अरुणाचल प्रदेश (2022 में दूसरे स्थान पर) रहे. आईजेआर 2022 और 2025 के बीच अगर सुधार की बात करें, तो बिहार ने सबसे ज्यादा सुधार दर्ज किया, इसके बाद छत्तीसगढ़ और ओडिशा का स्थान है. सुधार की अंक तालिका में उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड ने हरियाणा, तेलंगाना और गुजरात सहित सात अन्य राज्यों की तुलना में बेहतर प्रदर्शन किया.

पुलिस में महिलाओं की क्या स्थिति है

  • पुलिस बल में कुल 2,42,835 महिला कर्मियों में से केवल 960 अधिकारी आईपीएस रैंक में हैं.
  • गैर-आईपीएस कैटेगरी में 24,322 महिलाएं हैं.
  • डिप्टी एसपी के कुल 11,406 पदों में से 1,003 पर महिलाएं हैं, जिनमें सबसे ज्यादा 133 मध्य प्रदेश में हैं.
  • 2,17,553 महिलाएं कॉन्स्टेबल और हेड कॉन्स्टेबल के पदों पर कार्यरत हैं.

द इंडिया जस्टिस रिपोर्ट (आईजेआर) की शुरूआत टाटा ट्रस्ट्स ने की थी और उसकी पहली रैंकिंग 2019 में पब्लिश हुई थी. इंडिया जस्टिस रिपोर्ट पर चर्चा करते हुए, जस्टिस (रिटायर्ड) मदन बी. लोकुर ने कहा, "हम न्याय प्रणाली की अग्रिम पंक्ति जैसे पुलिस थानों, पैरालीगल वॉलंटियर्स और जिला अदालतों को पर्याप्त संसाधन और ट्रेनिंग देने में फेल रहे हैं. इसी वजह से जनता का भरोसा टूटता है. दुर्भाग्यवश, न्याय पाने का बोझ आज भी उस व्यक्ति पर है जो न्याय मांग रहा है, न कि उस राज्य पर जो उसे प्रदान करना चाहिए.

इंडिया जस्टिस रिपोर्ट की चीफ एडिटर माया दारुवाला ने कहा, ??भारत एक लोकतांत्रिक और कानून से चलने वाले देश के तौर पर सौ साल पूरे करने की ओर बढ़ रहा है लेकिन अगर न्याय प्रणाली में सुधार तय नहीं होंगे, तो कानून के राज और समान अधिकारों का वादा खोखला रहेगा. सुधार अब विकल्प नहीं, जरूरत है. संसाधनों से संपन्न, संवेदनशील न्याय प्रणाली एक संवैधानिक अनिवार्यता है, जिसे हर नागरिक के लिए रोज़मर्रा की सच्चाई बनना चाहिए."

आईजेआर 2025 पिछली तीन रिपोर्ट की तरह परिमाण के आधार पर 24 महीने हुए शोध के जरिए से जरूरी सेवाओं की प्रभावी आपूर्ति के लिये न्याय की आपूर्ति करने वाली संरचनाओं को सक्षम बनाने में राज्यों का प्रदर्शन आंकती है. यह रिपोर्ट न केवल विभागीय आंकड़ों को इकट्ठे करती है, बल्कि न्याय वितरण की चार प्रमुख संस्थाओं ? पुलिस, न्यायपालिका, जेल और विधिक सहायता को छह मानकों: बजट, मानव संसाधन, कार्यभार, विविधता, इंफ्रास्ट्रक्चर और रुझानों के आधार पर राज्य-घोषित मानकों की कसौटी पर जांचती है.

सुधार को प्रोत्साहन, पर अंतर अभी भी बरकरार

न्यायपालिका: 1.4 अरब लोगों के देश में भारत में कुल 21,285 जज हैं, यानी प्रति 10 लाख आबादी पर केवल 15 जज. यह 1987 में विधि आयोग द्वारा सुझाए गए 50 न्यायाधीश प्रति 10 लाख की सिफारिश से काफी कम है. उच्च न्यायालयों में 33% और जिला न्यायपालिका में 21% पद खाली हैं. इससे न्यायाधीशों पर भारी कार्यभार पड़ता है, विशेष रूप से उच्च न्यायालयों में. उदाहरण के लिए, इलाहाबाद और मध्य प्रदेश उच्च न्यायालयों में एक न्यायाधीश पर औसतन 15,000 मामले लंबित हैं. वहीं, देशभर की जिला अदालतों में एक न्यायाधीश पर औसतन 2,200 मामले हैं.

पुलिस डिपार्टमेंट: पुलिस विभाग में भी भारी रिक्तियां हैं. अधिकारियों के 28% और सिपाहियों के 21% पद खाली हैं. देश में पुलिस-जनसंख्या अनुपात 1:831 है, जबकि अंतरराष्ट्रीय मानक के मुताबिक प्रत्येक एक लाख आबादी पर 222 पुलिसकर्मी होने चाहिए, भारत में यह संख्या केवल 120 है.

कारागार: अधिकारियों में 28% पद खाली हैं, कैडर स्टाफ में 28% और सुधारात्मक कर्मचारियों में 44% पद खाली हैं। जेल कर्मचारियों में उच्च स्तर की रिक्तियां चिंता का कारण बनी हुई हैं. चिकित्सा अधिकारियों के 43% पद खाली हैं, जबकि मॉडल प्रिज़न मैनुअल (2016) में कैदी-डॉक्टर अनुपात पर गौर करें तो इसमें 300 कैदियों पर 1 डॉक्टर निर्धारित किया गया है, लेकिन भारत का राष्ट्रीय औसत 775 कैदियों पर एक डॉक्टर है. वास्तव में, छत्तीसगढ़, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल सहित कई बड़े राज्यों में 1,000 से अधिक कैदियों पर एक डॉक्टर था.

फॉरेंसिक: फॉरेंसिक विज्ञान के क्षेत्र में प्रशासनिक कर्मचारियों की 47% और वैज्ञानिक कर्मचारियों की 49% रिक्तियां हैं.

पैरालीगल वालंटियर्स या पीएलवी: सामुदायिक स्तर के पैरालीगल वालंटियर्स की संख्या 2019 और 2024 के बीच 38% तक गिर गई है, जिसमें तमिलनाडु, राजस्थान और पंजाब में सबसे बड़ी गिरावट दर्ज की गई है. अब, एक लाख की आबादी पर केवल 3 पैरालीगल वालंटियर्स हैं. राष्ट्रीय स्तर पर, प्रशिक्षित 53,000 से ज्यादा पैरालीगल वालंटियर्स में से, केवल एक तिहाई को ही वास्तव में तैनात किया गया था.

इंफ्रास्ट्रक्चर: कुछ बुनियादी सुविधाओं में सुधार हुआ है, जैसे कि वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग सुविधा वाले जेलों की संख्या में वृद्धि (86%), कोर्ट हॉल की कमी में थोड़ी गिरावट (14.5%), सीसीटीवी वाले पुलिस स्टेशनों की संख्या में सुधार (83%) और प्रति जेल कानूनी सेवा क्लीनिक (1,330 जेलों में 1,215 क्लीनिक) हो गए हैं. गांवों में कानूनी सेवा क्लीनिकों की संख्या में कमी आई है. अखिल भारतीय स्तर पर, जनवरी 2017 और जनवरी 2023 के बीच, ग्रामीण पुलिस स्टेशनों में 735 की कमी आई है, जबकि शहरी पुलिस स्टेशनों में 193 की बढ़ोतरी हुई है.

राष्ट्रीय स्तर पर जेलों में इंफ्रास्ट्रक्चर कमजोर दिखाई पड़ता है. भारत की जेलें क्षमता से अधिक भरी हुई हैं, जिनकी राष्ट्रीय औसत ऑक्युपेंसी रेट 131% से ज्यादा है. 2022 तक, उत्तर प्रदेश की हर तीसरी जेल में 250% से ज्यादा की ऑक्युपेंसी रेट दर्ज की गई. अपनी मौजूदा दर पर, भारत की जेलों में कैदियों की संख्या 2030 तक 6.8 लाख तक पहुंचने का अनुमान है, जबकि मौजूदा क्षमता की दर से इसकी जेल क्षमता 5.15 लाख तक बढ़ने की संभावना है.

दो-तिहाई से ज्यादा कैदी (76%) विचाराधीन हैं. इनका एक बड़ा हिस्सा जेलों में अधिक समय बिता रहा है, 3-5 साल के बीच जेलों में रहने वालों की हिस्सेदारी 2012 में 3.4% से करीब दोगुनी होकर 2022 में 6% हो गई है. इसके अलावा, 5 साल से अधिक वक्त तक जेल में रहने वालों की तादाद तीन गुना हो गई है, जो इसी अवधि में 0.8% से बढ़कर 2.6% हो गई है.

विचाराधीन कैदी समीक्षा समितियों (यूटीआरसी) का प्रदर्शन: 2019 और 2023 के बीच के आंकड़ों से पता चलता है कि विभिन्न राज्यों में प्रदर्शन में अहम अंतर है. इन समितियों ने पूरे देश में करीब 2.5 लाख कैदियों की रिहाई की सिफारिश की है और रिहाई की औसत दर 47 फीसदी है.

SC, ST और OBC: पुलिस बल का 59% हिस्सा अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या अन्य पिछड़ा वर्ग के कर्मियों से बना है. हालांकि, पद के अनुसार इसमें काफी असमानता है, जबकि कॉन्स्टेबल स्तर पर 61% कर्मी एससी, एसटी या ओबीसी जातियों से हैं, वहीं डीएसपी जैसे वरिष्ठ पदों पर उनकी हिस्सेदारी घटकर केवल 16% रह जाती है.

जज: जिला न्यायपालिका में, केवल 5% न्यायाधीश अनुसूचित जनजातियों से और 14% अनुसूचित जातियों से हैं. 2018 से नियुक्त 698 उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों में से केवल 37 न्यायाधीश एससी और एसटी श्रेणियों से हैं.

लिंग: विविधता पर बढ़ते ध्यान के साथ, पुलिस में महिलाओं की हिस्सेदारी मामूली रूप से बढ़कर 12% हो गई है, हालांकि, अधिकारी स्तर पर यह केवल 8% पर स्थिर है. कुल महिला पुलिस बल का 89% हिस्सा केवल कॉन्स्टेबल पदों पर है. जिला अदालतों (38%) में उच्च न्यायालयों (14%) और सर्वोच्च न्यायालय (6%) की तुलना में महिला न्यायाधीशों की हिस्सेदारी भी अधिक है. मौजूदा वक्त में, 25 उच्च न्यायालयों में केवल एक महिला मुख्य न्यायाधीश हैं.

न्याय के लिए बजट: कानूनी सहायता पर प्रति व्यक्ति खर्च 7 रुपये तक पहुंचने के लिए संघर्ष कर रहा है, जबकि पुलिस पर खर्च 6 वर्षों में 55% बढ़ा है और राष्ट्रीय औसत अब लगभग 1300 रुपये के करीब है. हालांकि, ट्रेनिंग पर खर्च बहुत कम बना हुआ है, पुलिस बजट में प्रशिक्षण बजट की राष्ट्रीय औसत हिस्सेदारी 1.25% है.

इंडिया जस्टिस रिपोर्ट 2025 में कहा गया है कि न्याय व्यवस्था में तुरंत और बड़े बदलाव की ज़रूरत है. खाली पदों को जल्दी भरने और सभी तरह के लोगों को न्याय व्यवस्था में शामिल करने पर ज़ोर दिया गया है. असली बदलाव लाने के लिए, रिपोर्ट ने कहा है कि न्याय देना एक जरूरी सेवा होना चाहिए.

Citiupdate के लिए समीर खूंटे की रिपोर्ट...✍️