क्या सीईसी की भी तबियत नासाज़ होने वाली है??

महाअभियोग पारित तो नही हो सकता किन्तु साख में पलीता तो लग ही जायेगा

विपक्ष द्वारा भारत के मुख्य निर्वाचन आयुक्त पर महाभियोग लाने की खबरें आ रही हैं। सदन के 10% सदस्य मिलकर ऐसा प्रस्ताव ला सकते हैं। इसके लिए विपक्ष के पास पर्याप्त संख्या है। आगे महाभियोग के पास होने की दो स्थितियां है

1- दोनों सदनों में "उपस्थित एवं वोट कर रहे सदस्यों का साधारण बहुमत"

2- परन्तु दोनों सदनों का कुल मिलाकर "उपस्थित और वोट किये" सदस्यों का तीन चौथाई बहुमत।

यहाँ दिलचस्प बात यह कि भारत में महाभियोग की प्रक्रिया में, पार्टी व्हिप लागू नहीं होता।

राजनीतिक दल आम तौर पर, सदस्यों को कई मुद्दों पर वोटिंग के लिए, पार्टी का आदेश (व्हिप) जारी कर सकते हैं। महाभियोग में नहीं। उपस्थित होने, या पक्ष/विपक्ष में वोट करने को उनकी पार्टी बाध्य न कर सके, इसके लिए दल-बदल कानून में भी छूट है। आम हालात में यह कानून पार्टी व्हिप का उल्लंघन करने वाले सदस्य को विधायिका के अयोग्य ठहराता है, महाभियोग में लागू नहीं होता।

महाभियोग (अनुच्छेद 61, 67, 124(4), और 218) और जज (जांच) अधिनियम, 1968 के तहत होता है, जो सांसदों से अपेक्षा करता है, कि वे महाभियोग में अपने विवेक और सबूतों के आधार पर वोट करें।

राष्ट्रपति के महाभियोग में तो वोटिंग गुप्त मतदान से होती है। परन्तु अन्य संवैधानिक पद जिसमे सीईसी और कैग (कंट्रोलर जनरल आफ इंडिया) शामिल है, वहां गुप्त मतदान कराने का उल्लेख नही तो सदन का अध्यक्ष खुला या गुप्त मतदान करा सकता है। कम लोग जानते हैं, कि सिर्फ सीईसी को ही संविधान में प्रतिरक्षा (इम्युनिटी आन पोस्ट) हासिल है परन्तु शेष दो चुनाव आयुक्तों को यह प्रतिरक्षा हासिल नहीं है। शेष दो आयुक्तों को, किसी आम विभागीय सेक्रेटरी/ अफसर की तरह, सरकार एक चिट्ठी जारी कर, बाहर कर सकती है। अशोक लवासा के मामले में ऐसी बर्खास्तगी हम देख भी चुके हैं।

इसके पीछे इतिहास यह है कि नरसिंहराव सरकार में, चुनाव आयोग को बहुसदस्यीय बनाया गया था। तब टी एन शेषन, फोटो युक्त परिचय पत्रों के पूरा हुए बगैर, कुछ राज्यो के चुनाव कराने से इनकार कर रहे थे, जिससे संवैधानिक संकट के हालात बन रहे थे बिना कॉन्स्टिट्यूनल सपोर्ट के, अतिरिक्त दो आयुक्त, को ऐसा कमजोर ग्राउंड देने से सीईसी पर सरकारी नकेल कसी रहती है।

चूंकि महत्वपूर्ण फैसले के लिए तीनों आयुक्तों की सहमति की जरूरत होती है। मुख्य चुनाव आयुक्त अगर कोई निर्णय सरकार के प्रतिकूल लेना चाहें, तो बाकी दो आयुक्त अड़ंगा लगाकर उसे रोक सकते हैं हालांकि शेषन को, जी.वी. जी कृष्णमूर्ति का साथ मिल गया और वे धाकड़ शैली में चुनाव आयोग चलाते रहे। अपनी धमकी कारित न करते हुए उन्होंने वे चुनाव भी समय पर करवाये और प्रदेशो को संवैधानिक संकट से बचा लिया था। पर इस धमकी से सरकार को फोटोयुक्त मतदाता परिचय पत्रों के निर्माण में तेजी के लिए, आनन फानन अतिरिक्त बजट और स्टाफ जारी करना भी पड़ा जो कि शेषन की मांग थी हालांकि आज का दौर अलग है।

अतिरिक्त ईसी अशोक लवासा के पास ज्यादा पॉवर नही थी पर वे खड़ी रीढ़ वाले शख्स थे। वे मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट, चुनाव तारीखों के निर्धारण वगैरह में, कई बार अलग मत रखते थे। उनके विचार से चुनाव आचार संहिता के दौरान, यदि कोई एजेंसी ईडी-सीबीआई-एनआईए), किसी भी पार्टी के नेताओ के खिलाफ कार्यवाही (रेड/गिरफ्तारी/पूछताछ) करती है, (जैसा आजकल आम दृश्य हो चुका है) तो इसे मतदाताओं को प्रभावित करने का कदम मानकर, चुनाव आयोग द्वारा हस्तक्षेप करना चाहिए। इस बात पर उन्हें आयोग से निकाल फेंका गया।

पर ज्ञानेश कुमार, मुख्य आयुक्त होने के नाते संविधान प्रदत्त कवच कुंडल पहनकर बैठे हैं। तीन चौथाई बहुमत एक बड़ी शर्त है, जिसका पूरा होना सम्भव नही परन्तु यह प्रस्ताव आता है, बहस होती है, तो यह बहस इतिहास में दर्ज होगी। उस बहस और छीछालेदर के बाद वे पद पर बच भी गए, तो भी साख (अगर है) तो मिट्टी में मिल जायेगी। इसके बाद भविष्य में निर्वाचन सदन में बैठने वाला कोई भी आयुक्त, ज्ञानेश कुमार बनने से परहेज ही करेगा। या फिर ताज़ातरीन उदाहरण जगदीप धनकड़ से प्रेरणा लेकर शायद ज्ञानेश कुमार गुप्ता जी की भी तबियत नासाज़ हो जाये और वे निर्वाचन सदन का ही परित्याग कर दें।