परशुराम:गांव व्यवस्था के प्रतिपादक

भगवान श्री विष्णु के छठें आवेशावतार जामदग्न्य परशुराम का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है।कदाचित ऋषिकुल में उत्तपन्न होने के बावजूद आताताइयों के समूल उन्मूलनकर्ता व एक श्रेष्ठ आचार्य तथा योग्यतम महरेश्वर शिष्य भगवान परशुराम का जीवनवृत्त आश्रम के भिक्षाटन से शुरू होकर हैहयवंशीय आतताई राजा कार्तवीर्य अर्जुन के वंश के उच्चाटन तक ही सीमित न होकर रामावतार और कृष्णावतार के उपरान्त कलियुग में भी चिरंजीवी स्वरूप में आज भी अपनी यशकीर्ति की ध्वजा पताका को न केवल भारत अपितु मार्शल आर्ट जैसी कला के आविष्कारक के रूप में सम्पूर्ण पृथ्वी पर फहरा रही है।इसप्रकार परम पितृभक्त व सदाशिव के अनन्य शिष्य परशुराम का कृत्तित्व अन्याय व अनाचार के विरुद्ध संघर्ष करने की शिक्षा देने वाला जीवनदर्शन भी है।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार नारायण के छठें अवतार भगवान परशुराम का नररूप में प्राकट्य बैशाख शुक्ल तृतीया जिसे की अक्षय तृतीया के नाम से भी जानते हैं,के दिन हुआ था।इनके पिता का नाम जमदग्नि व माता का नाम रेणुका था।जबकि ऋषि भृगु इनके पितामह थे।यही कारण है कि परशुराम जी को भार्गव व जामदग्न्य नामों से भी सम्बोधित किया जाता है।ये पाँच भाइयों में सबसे छोटे थे तथा बाल्यकाल में इनका नामकरण इनके पितामह भृगु ने राम किया था।यद्यपि आठ वर्ष की अवस्था तक ये सभी वेद वेदांग और धर्मशास्त्रों की विद्याओं में पारंगत हो चुके थे तथापि ऋषि ऋचीक से विधिवत दीक्षित होकर ये भगवान भोलेनाथ से शिक्षा ग्रहण करने हेतु कैलाश पर्वत चले गए थे।
रामचरित मानस में कहा गया है कि-
सुनु जननी सोइ सुत बड़भागी।
जो पितु मातु चरन अनुरागी।।
भगवान परशुराम का चरित्र भी कदाचित मानस की उक्त चौपाई को पूर्णत:चरितार्थ करता है।एक पितृभक्त पुत्र के रूप में अपनी ही माता के सिर को धड़ से अलग करना और तदुपरांत पिता से आशीर्वाद प्राप्त कर माता को फिरसे जीवनदान देते हुए अपनी करनी को विस्मृत करवाने की प्रार्थना करना तथा भगवान शिव का अनन्य भक्त होना परशुराम जी चरित्र को अत्यंत विशालता है।
श्रुतियों के अनुसार भगवान भोलेनाथ ने बालक राम की शिक्षा व तपस्या से प्रसन्न होकर उन्हें अपना दिव्यास्त्र के रूप में परशु प्रदान करते हुए संसार से आतताइयों और उस समय के सबसे निरंकुश औरकि नराधम राजा सहस्रार्जुन द्वारा उनके पिता की हत्या और गुरुकुलों को उजाड़ने के दोषी को दंड देने हेतु कैलाश से धरती पर जाने का आदेश दिया था।
भगवान परशुराम स्वयम में एक सेना और साक्षात यमराज की प्रतिमूर्ति थे।भगवान दत्तात्रेय से आशीर्वाद पाकर अजेय हुआ सहस्रार्जुन यद्यपि शुरुआती कुछ वर्षों तक सुयोग्य नृप के रूप में शासन किया किन्तु एकबार समारोह के नामपर देशभर के सोलह हजार क्षत्रिय राजाओं और राजकुमारों को अपने यहाँ आमंत्रित कर सबको बंदी बनाकर जेल में डाल दिया था।इतना ही नहीं हजारों क्षत्रिय राजा सहस्रार्जुन के साथ युद्ध करते हुए वीरगति को भी प्राप्त हो गए थे।इसप्रकार छलपूर्वक एकसाथ पूरी पृथ्वी पर आधिपत्य जमाने के पश्चात कार्तवीर्य सहस्रार्जुन ने धर्मविरुद्ध कार्य करने शुरू कर दिए।लिहाजा उसने गुरुकुलों और आश्रमों में विद्याध्ययन पर पाबंदियां लगाईं, उन्हें उजाड़ा और इतना ही नहीं आश्रमों में पढ़ने वाले बटुकों के भिक्षाटन पर भी रोक लगा दी।जिससे गुरुकुलों के समक्ष अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया था।इसप्रकार कहा जा सकता है कि सहस्रार्जुन शिक्षा प्राप्ति की मार्ग में भी सबसे बड़ा बाधक था।
पुराणों के अनुसार एकबार आखेट में भटककर कार्तवीर्य ऋषि जमदग्नि के आश्रम में पहुँच गया।जहाँ ऋषि ने उसका यथोचित आदर सत्कार करते हुए अपनी कपिला गाय के आशीर्वाद से राजा की सभी इच्छाओं को परिपूर्ण कर दिया।जिससे सहस्रार्जुन ऋषि की उस कपिला नंदिनी गाय को बलात अपहरण करते हुए अपने महल में लाने का असफल प्रयास किया और यहीं से उसकी जमदग्नि से खुली दुश्मनी हो गयी।ध्यातव्य है कि हैहयवंशीय क्षत्रिय सहस्रार्जुन के पुत्रों ने नंदिनी गाय के प्रतिशोध में धोखे से ऋषि जमदग्नि की हत्या करते हुए आश्रम को तहस नहस कर दिया।जिससे दुखी होकर परशुराम की माता रेणुका भी पति की चिता पर जलकर सती हो गयीं।इस कृत्य को अपनी सूक्ष्मदृष्टि से देखने के ही पश्चात भगवान शिव ने कैलाश पर शिष्य राम को परशु प्रदान करते हुए वापस आश्रम जाने को कहा था।परशु धारण करने के कारण ही राम को परशुराम नाम से सम्बोधित किया जाता है।
वैसे तो ब्राह्मणों और ऋषियों को लेकर यह आम धारणा है कि ये शास्त्र के उपासक होते हैं किन्तु परशुराम जी ने शास्त्रों को हृदयंगम करते हुए बिष्णु के चक्र और शिवप्रदत्त परशु तथा महान धनुष को धारण करते हुए अनाचार और अत्याचार का प्रतिकार किया।परशुराम जी का चरित्र यह शिक्षा देता है कि अत्याचार और पापाचार के उन्मूलन हेतु उन लोगों को भी प्रतिकार करना चाहिए जो सदैव हिंसा से विरत रहते हुए अध्ययन-अध्यापन व सीधे सरल स्वभाव के होते हैं।यही कारण है कि परशुराम जी ने दत्तात्रेय शिष्य सहस्रार्जुन की न केवल एक हजार भुजाओं अपितु उसके सभी पुत्रों व बन्धु बाँधबों का भी वध करते हुए रक्त से पांच कुंडों को भर अपने पितरों का तर्पण किया।यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि भगवान परशुराम सभी क्षत्रियों के दुश्मन नहीं थे,वे केवल और केवल उस समय के अत्याचारी हैहयवंशीय क्षत्रियों के शत्रु थे,जिन्होंने गुरुकुलों को तहस नहस करते हुए उनके निरपराध पिता की हत्या की थी।
भगवान परशुराम को अष्टचिरंजीवियों में सिद्ध स्थान प्राप्त है।अश्वस्थामा,महाराज बलि, वेदव्यास,कौरवों के कुलगुरु कृपाचार्य,रामभक्त हनुमान और मार्कण्डेय ऋषि ऐसे लोग हैं जिन्हें अमरत्व का आशीर्वाद प्रदत्त है।कल्कि पुराण के अनुसार कल्कि अवतार में भी परशुराम जी को कल्कि भगवान की शिक्षा दीक्षा तथा हनुमान को उनका संरक्षण करना शेष है।यही कारण है कि आज भी हिमालय की पर्वत श्रेणियों में इन चिरन्जीवियों के साधनारत होने की बात कही जाती है।
वस्तुतः परशुराम जी एक योग्यतम आचार्य भी थे।गंगापुत्र भीष्म व कौरवों तथा पांडवों के आचार्य द्रोण सहित अंगराज कर्ण जैसा महायोद्धा परशुराम जी के शिष्य थे।जिन्हें इन्होंने शस्त्र विद्या का ज्ञान प्रदान किया था।एक शिक्षक की भांति परशुराम जी का चरित्र सर्वदा पितृभक्ति, नारी सम्मान और अनाचार तथा शोषण के विरुद्ध प्रतिकार व सङ्घर्ष करने की शिक्षा देता है।विश्व इतिहास में शायद ही ऐसा कोई आचार्य रहा हो जिसने शस्त्र और शास्त्र दोनों में पारंगतता प्राप्ति की हो।इतना ही नहीं आज मार्शल आर्ट के नाम से विख्यात वीरोचित कला के आविष्कारक भी स्वयम भगवान परशुराम ही हैं।केरल,गोवा और कोंकण की धरती को समुद्र से छीनकर आज के गांव प्रथा के आविष्कारक परशुराम जी न केवल न्याय,दया,समता की प्रतिमूर्ति हैं वरन उनका जीवनदर्शन हमें सदैव सतपथ का अनुगमन करते हुए न्यायव्यवस्था की स्थापना का संदेश देता है।
-उदयराज मिश्र
शैक्षिक सलाहकार व शिक्षाविद