पोषण अभियान: एक कदम सुपोषण की ओर

आजजब देश छठवाँ पोषण माह पूरे जोश के साथ मना रहा है तब भारत में कुपोषण पर चर्चा तेज होनी चाहिए। कुपोषण कोई नया विषय नहीं है, भारत इस दंश को बहुत पहले से ही झेलता चला आ रहा है। स्वतन्त्रता से पूर्व भी कई स्वास्थ्य समितियों ने बच्चों, गर्भवती, धात्री माताओं व दिव्यांग में कुपोषण को प्रमुखता से चिन्हित किया था और तब से लेकर स्वतन्त्रता प्राप्ति व उसके बाद से अब तक कुपोषण देश के लिए एक व्यापक सामाजिक समस्या बना हुआ है। कुपोषण के निदान हेतु इसको अलग से देखने की आवश्यकता महसूस होने पर भारत सरकार द्वारा एकीकृत बाल विकास सेवाएँ वर्ष 1975 में कुपोषण दूर करने के उद्देश्य से शुरू की गयी। आंगनवाड़ी केन्द्रों के माध्यम से पोषण संबंधी कार्यक्रम भी शुरू किए गए। कुपोषित बच्चों के चिन्हिकरण की कवायद शुरू हुई। वर्ष 1983 में राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति बनी, इसमें भी स्वीकार किया गया कि देश में कुपोषण की दर बहुत ही उच्च है और इसको कम करने के लिए स्पेशल सप्लीमेंट्री फीडिंग प्रोग्राम संवेदनशील समूह के लिए चलाए जाने चाहिए। पोषण शिक्षा और पोषण शोध पर बढ़ावा देने की बात भी कही गई। आईसीड़ीएस में अनुपूरक पोषाहार व प्राथमिक-उच्चप्राथमिक स्कूल में मिड-डे-मील कार्यक्रम बच्चों में पूरक पोषक आहार हेतु चलाये गए। वर्ष 2014 में, उत्तर प्रदेश में राज्य पोषण मिशन की शुरूआत कुपोषण दूर करने के लिए की गयी। वर्ष 2017 में, नई राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति बनी, इसमें व्यापक रूप से कुपोषण, अल्प पोषण के प्रभाव व प्रबंधन पर चर्चा की गई। इतने प्रयासों के बाद भी कुपोषण के स्तर में इच्छित कमी लाना मुमकिन नहीं हो पा रहा था और इस हेतु एक सघन मिशन की आवश्यकता महसूस हुई।

वर्ष 2018 में, भारत को कुपोषण मुक्त बनाने के लिए राष्ट्रीय पोषण अभियान की शुरुआत की गई। इसी वर्ष से सितंबर माह को ?राष्ट्रीय पोषण माह? के रूप में मनाया जाता है। इसी क्रम में माह सितंबर 2023 छठवाँ ?राष्ट्रीय पोषण माह? है। इस वर्ष की थीम ?सुपोषित भारत, साक्षर भारत, सशक्त भारत? है। इसके कुछ घटक भी हैं यथा- प्रभावी स्तनपान व संपूरक आहार, स्वस्थ बालक स्पर्धा, पोषण भी पढ़ाई भी, मिशन लाइफ माध्यम से पोषण में सुधार, मोटे अनाज एवं पोषण वाटिका का उपयोग, आयुष पद्धति, मेरी-माटी मेरा-देश, जनजातीय केन्द्रित पोषण, एनीमिया स्तर में सुधार, तथा सम्पूर्ण पोषण। कुपोषण को दूर करने के कार्य अंतरमंत्रालयी या अंतर-विभागीय समन्वय के आधार पर किए जाना है। क्योंकि कुपोषण के सामाजिक-आर्थिक निर्धारको को देखने पर पता चलता है कि कुपोषण जैसी सामाजिक समस्या के विकास में, स्वच्छता का अभाव, गरीबी, अशिक्षा, पोषण-शिक्षा का अभाव, स्वास्थ्य सेवाओं तक समय से पहुंच, संतुलित आहार की उपलब्धता में कमी, समाज में फैली भ्रांतियां, पोषण के प्रति सही जानकारी का अभाव विशेष, भागीदारी निभाते हैं। कुपोषण को जड़ से समाप्त करने के लिए हमें संयुक्त प्रयास करना पड़ेगा। इसी को ध्यान में रखते हुए विभिन्न विभागों जैसे- बाल विकास सेवा एवं पुष्टाहार, स्वास्थ्य, पंचायती राज, खाद्य एवं रसद, जल शक्ति (नमामि गंगे), ग्रामीण विकास, शिक्षा, आजीविका मिशन, अल्पसंख्यक एवं जनजाति कल्याण , समाज कल्याण आदि के समन्वय से कुपोषण से निजात पाना है। सभी सरकारी विभाग समुदाय/ग्रामीण स्तर पर अपनी-अपनी सेवाओं के माध्यम से ऐसा वातावरण तैयार करेंगे जिससे बच्चों, गर्भवती व स्तनपान कराने वाली माताओं में कुपोषण होने की संभावना न्यूनतम हो।

भारत में, कुपोषण के संबंध में आंकड़े, नेशनल फॅमिली हैल्थ सर्वे प्रकाशित करते हैं। वर्ष 2022 में, नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे -5 द्वारा बच्चों में कुपोषण के आंकड़े प्रकाशित किए गए हैं। भारत में कुपोषण को मुख्यतः तीन कैटेगरी- स्टंटिंग, वेस्टिंग और अंडरवेट में मापा ग़या है। भारत में 5 वर्ष तक के कुल 36% बच्चे नाटापन अर्थात स्टंटिंग, 19% बच्चे दुबलापन अर्थात वेस्टिंग और 32% बच्चे अल्पवजन अर्थात अंडरवेट का शिकार है। हालांकि नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे 4 के आंकड़ों से तुलना करने पर इन तीनों कैटेगरी के कुपोषण में कमी दर्ज की गई है। एनीमिया का स्तर भी मापा गया है क्योंकि कुपोषण का एक मुख्य कारण खून की कमी (एनीमिया) भी होता है। भारत में गंभीर एनीमिया से ग्रसित बच्चों की संख्या 2.1% है, मध्यम एनीमिक बच्चों की संख्या 35.8% है, अल्प एनीमिक बच्चों की संख्या 29.2 प्रतिशत है। सर्वे यह भी दर्शाता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में कुपोषण की दर अधिक है। यदि जाति के आधार पर देखा जाए तो अनुसूचित जाति व जनजाति में कुपोषण का प्रभाव ज्यादा पाया गया है। आर्थिक पृष्ठभूमि के अनुसार, गरीब परिवारों में कुपोषण की दर अधिक है लेकिन कुपोषण के मामले संपन्न परिवारों में भी पाए गए हैं। कुपोषण की समस्या मुख्यता लोगों में पोषण शिक्षा का अभाव, जागरूकता की कमी व ऐसी सामाजिक मान्यता कि बच्चों का पालन-पोषण व देखरेख की जिम्मेदारी केवल मां की होती है, के कारण है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन, यूनिसेफ़ आदि ने समय-समय पर कुपोषण के वैश्विक आंकड़े प्रस्तुत किए। अंतरराष्ट्रीय संस्था यूनिसेफ, विश्व स्वास्थ्य संगठन तथा विश्व बैंक ने कुपोषण पर एक संयुक्त रिपोर्ट 'लेबल्स एंड ट्रेंड्स इन चाइल्ड मालनूट्रिशन 2020' जारी की है। इस रिपोर्ट के अनुसार पूरे विश्व में 144 मिलियन बच्चे स्टंटिंग अर्थात नाटापन, 47 मिलियन बच्चे वेस्टिंग अर्थात दुबलापन, तथा 40.3 मिलियन बच्चे सीवियर वेस्टिंग अर्थात गंभीर दुबलापन से ग्रसित है। इस रिपोर्ट के अनुसार ज्यादातर कुपोषित बच्चे अफ्रीका और एशिया में रहते हैं। एशिया में विशेषतया साउथ एशिया में कुपोषण की स्थिति ज्यादा भयावह है। कुपोषण की भयावहता को देखते हुए विश्व स्वास्थ्य असेंबली द्वारा वर्ष 2025 तक संपूर्ण विश्व को कुपोषण मुक्त बनाने का संकल्प लिया है। यूनाइटेड नेशन्स डेव्लपमेंट प्रोग्राम (यूएनडीपी) के अनुसार पाँच वर्ष तक की आयु के 90 मिलियन से ज्यादा बच्चे गंभीर अल्पवजन (अंडरवेट) के शिकार हैं। यूएनडीपी ने सतत धरणीय लक्ष्य (एसडीजी) में कुपोषण व इसके सभी प्रकारों को वर्ष 2030 तक समाप्त करने का लक्ष्य बनाया है। यूएनडीपी का कहना है कि वर्ष भर सभी बच्चों को पोषक तत्वों युक्त भोजन मिलना चाहिए।

कुपोषण से निपटने में तकनीकीका भी सहारा लिया जा रहा है। तकनीकि सहयोग से पूरे भारत के आंकड़े जुटाने में आसानी हुई है। माह अगस्त 2023 के आंकड़ों के अनुसार, भारत में कुल 13,96,979 आंगनवाड़ी केंद्र हैं जिन पर लगभग 78 लाख गर्भवती महिलाएं, 44 लाख धात्री माताएँ, 40 लाख 0 से 6 माह के बच्चे, 4.17 करोड़ 6 माह से 3 वर्ष के बच्चे, तथा 4.30 करोड़ 3 से 6 वर्ष की आयु के बच्चे पंजीकृत हैं। जिनको पोषण संबंधी सेवाएं जैसे- हॉट कुक्ड मील व टेक होम राशन, पोषण संबंधी आवश्यकताएँ पूरी करने हेतु दिया जाता है। अगर बात कुपोषण को मापने की है तो भी तकनीकि सहयोग ने आंगनवाड़ी के काम को आसान किया है। अगस्त 2023 में भारत में पंजीकृत 0 से 6 वर्ष के बच्चों की संख्या लगभग 8.33 करोड़ है जिनमें से 7.24 करोड़ पाँच वर्ष तक के बच्चों की वृद्धि निगरानी की गयी है। तीन कैटेगरी के कुपोषण - स्टंटिंग, वेस्टिंग और अंडरवेट को बच्चों में मापा ग़या है। बच्चों में स्टंटिंग अर्थात नाटापन 39 प्रतिशत, अंडरवेट अर्थात अल्पवजन 18 प्रतिशत, और वेस्टिंग अर्थात दुबलापन 6 प्रतिशत पाया गया। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे -5 के आंकड़ों के सापेक्ष अंडरवेट व वेस्टिंग (सैम/मैम) में कमी प्रदर्शित होती है। इसके अलावा ओवर न्यूट्रिशन अर्थात मोटापन भी 6 प्रतिशत बच्चों में दर्ज किया गया है (पोषण ट्रैकर)।

अब पोषण अभियान 2.0 के जरिये महिला एवं बाल विकास मंत्रालय कुपोषण को खत्म करने की दिशा में प्रयत्नशील है। पोषण 2.0, में कुपोषण, गर्भवती, धात्री, किशोरी बालिका पर मुख्य फोकस हैं। इसमें मातृ मृत्युदर में कमी लाने हेतु ?मातृ पोषण? पर विशेष बल दिया गया है। बच्चों में कुपोषण की रोकथाम हेतु ?आईवाईसीएफ? अर्थात ?इनफेण्ट यंग चाइल्ड फीडिंग? पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। सैम/मैम बच्चों का चिकित्सीय प्रबंधन पोषण ट्रैकर व ई-कवच के माध्यम से हो रहा है। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 के अनुसार ईसीसीई ?अर्ली चाइल्डहुड केयर एंड एडुकेशन? को क्रियान्वित किया जा रहा है। पोषण 2.0 सतत धारणीय विकास (एसडीजी) लक्ष्य को पूरा करने में भी सहयोग करता है। इसके माध्यम से एसडीजी लक्ष्य-2 जीरो हंगर व लक्ष्य 4- गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को पूरा करना है। साथ ही भविष्य की पोषण संबंधी नई-नई चुनौतियों का सामना करने के लिए भी तैयार रहना होगा।

समाज के निम्न स्तर पर जो लोग हैं उनकी स्वास्थ्य एवं पोषण सुविधाओं तक बहुत कम पहुंच हो पाती है इसीलिए विकासशील देशों में कुपोषण लंबे समय से एक गंभीर समस्या बना हुआ है। इसकी वजह से देश को एक स्वस्थ व सुपोषित मानव सम्पदा नहीं मिल पा रही है।विभिन्न सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने वाले कुछ संवेदनशील वर्ग जैसे छोटे बच्चे, गर्भवती, धात्री महिलाएं एवं दिव्यांग आदि का पोषण स्तर अन्य के मुकाबले कम होता है। सामाजिक-आर्थिक कारक जैसे जाति, वर्ग और धर्म आदि भी किसी व्यक्ति के पोषण-स्वास्थ्य को किसी न किसी रूप में प्रभावित करते हैं। बच्चे ही देश का भविष्य होते हैं और जब देश का भविष्य ही कुपोषित हो तो देश कैसे प्रगति कर सकता है। कुपोषण को राजनीति से जोड़ा जाना चाहिए और राजनीतिक पार्टियां जिस तरह स्वास्थ्य को चुनावी एजेंडा में शामिल करती हैं उसी तरह कुपोषण को भी एजेंडा में शामिल किया जाना चाहिए क्योंकि भारतीय संविधान हर बच्चे को ?कुपोषण मुक्त जीवन? का अधिकार देता है।

अंत में कहना है कि कुपोषण रूपी सामाजिक समस्या को दूर करने के लिए मात्र सरकारी प्रयास काफी नहीं होंगे, समाज को सरकार के साथ मिलकर काम करना होगा। समाज में रहने वाले जन-साधारण को भी पोषण संबंधी आचार-व्यवहार अपनाने होंगे।

(इस आलेख की लेखिका डॉ0 पूजा सिंह कन्नौज जिले की तालग्राम बाल विकास परियोजना की परियोजनाधिकारी है)