सारस्वत कुण्ड कैसे बना दधीचि कुण्ड तीर्थ, कैसे पड़ा इस स्थान का नाम मिश्रित तीर्थ , सतयुग काल से निरंतर महर्षि दधीचि की स्मृति में होती चली आ रही है धार्मिक चौरासी कोसीय होली परिक्रमा।

सीतापुर /सतयुग कालीन अति पुनीत आरण्य क्षेत्र मिश्रित नैमिषारण्य अट्ठासी हजार ऋषि मुनियों की पावन तपोभूमि एवं आध्यात्मिक वेद पुराणों की जननी ही नही यह भूमि लोक कल्याण हेतु परम तपस्वी महर्षि दधीचि की अस्थि दान स्थली वाला यह पौराणिक क्षेत्र तीनों लोकों के स्वामी आशुतोष शिवजी की तपस्थली के रूप में भी जाना जाता है इसीलिए शिव को ही इस धार्मिक क्षेत्र का रक्षक माना गया है। ज्ञातव्य हो कि प्रत्येक वर्ष फाल्गुन माह की अमावस्या से महर्षि दधीचि की स्मृति में होने वाला चौरासी कोसीय धार्मिक होली परिक्रमा जो रामादल के नाम से भी विख्यात है का कैसे हुआ शुभारंभ।बताते चलें एक बार शिवजी तपस्या में लीन तभी त्रिपुरासुर नामक राक्षस उनकी तपस्या में बाधक बनने लगा जिससे क्रोधित होकर शिवजी त्रिपुरासुर से युद्ध करने लगे यह युद्ध कई वर्षों तक चलता रहा इसी दौरान शिवजी के वाहन नंदी को भारी प्यास लगी तो शिव ने अपने धनुष से पृथ्वी पर बाण चलाया जिससे एक जलधार उत्पन्न हो गई जिससे नंदी ने अपनी प्यास बुझाई तदुपरान्त त्रिपुरासुर राक्षस का वध करने के बाद शिवजी ने इसी कुन्ड में स्नान करके इसका नामकरण सारस्वत कुंड रूप में करके वरदान दिया कि जो प्राणी इस कुन्ड के जल में स्नान करेगा वह प्राणी समस्त पापों से मुक्त हो जाएगा। तभी से शिव को त्रिपुरारी के नाम से जाना जाता है। धर्माचार्यों की मानें तो सतयुग काल में महर्षि अथर्व ऋषि के पुत्र महर्षि दधीचि जो आशुतोष शिव जी के परम शिष्य थे वे काशी क्षेत्र में तपस्या कर रहे थे इस दौरान उनको प्यास लेगी तो उन्होंने पड़ोस में ही बह रहे जल से अपनी प्यास तो बुझा ली किंतु उनके झूठे जल की कुछ बूंदें उसी जल में गिरकर बह गई इसी जल में अपनी प्यास बुझा रही एक तपस्वी ब्राह्मण की कन्या के मुंह में पहुंचकर वे बूंदे गर्भ के रूप में ठहर गई कन्या को अनजाने गर्भ का जब अहसास हुआ तो उसने वहीं से श्राप दे दिया कि जिस किसी व्यक्ति ने मेरे साथ इस प्रकार का कृत्य किया हो तो वह व्यक्ति कुष्ठ रोग से ग्रसित हो जाए कन्या द्वारा दिए गए श्राप दधिचि को कुष्ठ रोग उत्पन्न होने लगा जिससे घबराकर उन्होंने ने अपने गुरु शिव का ध्यान किया जिससे शिव जी ने प्रकट होकर के द्वारा अनजाने में किए गए पाप के बारे में उन्हें बताया ।इस श्राप मुक्त होने का उपाय पूछने पर उन्होंने बताया मेरे द्वारा उत्पन्न किया हुआ सारस्वत नामक कुंड है उसमें स्नान करने से तुम्हारे सभी पाप नष्ट हो जाएंगे शिव को प्रणाम करते हुए महर्षि दधीचि इस आरण्य क्षेत्र आ गये और जी द्वारा उत्पन्न सारस्वत कुण्ड में स्नान किया जिससे उनका कुष्ठ रोग दूर हो गया फिर उनके मन में विचार आया कि हमें तो तपस्या ही करनी है इससे पुनीत स्थान पूरे भूमंडल पर नहीं मिल सकता।इस कारण वे अपनी पत्नी सुवर्चा जो किरण बिंदु राजा की पुत्री थी को साथ लेकर यहीं निवास और तपस्या करने लगे ।तदुपरांत देवासुर संग्राम के बाद विजई देवताओं ने अपने दिव्य अस्त्र महर्षि दधीचि जी के पास धरोहर के रूप में रख दिए काफी समय तक जब देवता अपने अस्त्र लेने नहीं आए तो दधीचि ने सोचा कि मैं तो तपस्या में लीन रहता हूं अगर यह अस्त्र असुरों के हाथ लग गए तो इनका गलत प्रयोग हो सकता है यह सोच कर उन्होंने अस्त्रों के तेज को आचमनीय जल में समाहित करके पी लिया। दूसरी तरफ त्वष्टा के यज्ञ में गलत मन्त्रंउच्चारण की वजह से वृत्तासुर नामक असुर का प्रादुरभाव हो गया जो आतंक फैलाकर देवलोक पर कब्जा करने युक्तियों में लग गया जिससे देवताओं को अपने दिव्यास्त्रों की याद आई जिनको उन्होंने देवासुर संग्राम के बाद महर्षि दधीच के पास धरोहर के रूप में छोड़ा था तब सभी देवगण इन्द्र की अगुवाई में उनके पास पहुंचे और अपने अस्त्रों की मांग की तब दधीचि जी ने उनसे कहा कि मैंने उनके तेज को आत्मसात कर लिया है। यह सुनते ही देवताओं में हाहाकार मच गया और इंद्र आदि देवताओं ने दधीचि जी से बज्र मई हुई उनकी अस्थियों की याचना की जिस पर दधीचि जी ने कहा कि मैं अपनी अस्थियां अगर अभी आपको दे दूंगा तो मेरा तीर्थाटन का संकल्प अपूर्ण रहेगा। इस लिए देवताओं ने त्रैलोक्य के तीर्थों का आवाहन करके उन्हें इस क्षेत्र में आने के लिए आमंत्रित किया। देवताओं के आवाहन पर आए तीर्थ यहां के चौरासी कोस क्षेत्र में ठहरे जिनकी दधीचि ने देवताओं के साथ मिलकर परिक्रमा फाल्गुन मास की प्रतिपदा को प्रारंभ की और दस दिनों में परिक्रमा पूर्ण करने के उपरांत अपने आश्रम पर यहां आ गए और चार दिनों तक यहां पर ब्राम्हण पूजन देव दर्शन कन्या पूजन आदि धार्मिक अनुष्ठानोंपरान्त पांचवें दिन पूर्णिमा तिथि होलिका दहन के दिन अवहानित पावन सभी तीर्थों के जल स्नान किया और शरीर पर दही नमक का लेपन करके अपनी शारीर की मज्जा गायों से चटवाकर जन कल्याण हेतु अपनी अस्थियों का दान देवताओं को कर दिया जिनसे साढ़े तीन बज्रों का निर्माण हुआ ।प्रथम बज्र गाण्डीव, द्वितीय पिनाक, तथा तृतीय सारंग बना तथा शेष बचे आधे बज्र को इन्द्र ने धारण करके वृत्तासुर का वध किया था। सभी तीर्थों का जल एक में मिश्रित होने से सारस्वत कुंड का नाम बदलकर दधीचि कुंड तीर्थ हुआ चूंकि समस्त तीर्थों का जल दधीचि जी के स्नान के दौरान यहां पर एक में मिला तब इस स्थान का नाम मिश्रित तीर्थ पड़ा तभी से महर्षि दधीचि की स्मृति में यह धार्मिक होली परिक्रमा सतयुग काल से निरंतर होती चली आ रही है।