कायस्थ समाज ने स्वयं को उपेक्षित कर दिया: सुधीर कुमार श्रीवास्तव

देश के विभिन्न भागों में कायस्थ रहते हैं जो वास्तव में देश के किसी अन्यत्र क्षेत्रों से आकर बस जाते हैं और नौकरी करते हुए मासिक वेतन पर आश्रित एवं भरोसा भी उसी पर करते हुए अपना परिवार अपनी संस्कृति अपना पैतृक गांव/घर से मोह समाप्त कर चुपचाप मनहूसियत भरा जीवन यापन करते हैं जिसका परिणाम समाज में उपेक्षित हो जाते हैं और दूसरे समाज/संस्कृति पर विश्वास करना उनकी मजबूरी हो जाती है यही से नफरत की भावना जागृत होती है जब तक नौकरी में हैं मासिक वेतन मिल रहा है नफरती/ मनहूसियत रूपी जिंदगी जीते हैं जिसे लोग अहंकार कहते हैं जबकि वास्तव में कोई अहंकार नहीं अपनो अपनापन से दूर रहकर मनहूस बन जाना मात्र हो सकता है। ए विचार भगवान श्री चित्रगुप्त वेलफेयर फेडरेशन (रजि) के अध्यक्ष श्री सुधीर कुमार श्रीवास्तव ने व्यक्त किया ।
सुधीर कुमार श्रीवास्तव ने कहा कि जब भी जहाँ भी कायस्थ समाज का कोई भी महत्वपूर्ण पर्व/समारोह होता है उस समय आयोजकों की स्थिति भिखारी जैसी हो जाती है और ए मनहूस अपनी मनहूसियत में अंधे बहरे गूंगे तबतक बने रहते हैं जबतक पर्व/समारोह समाप्त नहीं हो जाता । अंत में वे स्वयं को लपेट कर गर्व से कहते हैं कायस्थों में एकता नहीं है अहंकार है अब बताइये इसे क्या कहा जाय? ए मनहूस कायस्थों के पर्व/समारोह के आयोजकों का मज़ाक उड़ना कार्यों में अवरोध डालना उनको जलील करना ही अपना धर्म व योग्यता समझते हैं। लानत है ऐसी योग्यता व ज्ञान पर?
सुधीर कुमार श्रीवास्तव ने कहा कि हालांकि अब आरक्षण ने इन लोगों की आंखे खोल रही है जागरूकता जागृत हो रही है पर " जागो कायस्थ जागो अभी भी समय है " जो अपनो का नहीं होता ओ दूसरों का क्या होगा (शायद यही कारण है राजनीतिक पतन) आइये हम सब मिलकर अपनी पर्व व संस्कृति को पुनर्जागृत करें।