IAS प्रशिक्षण में पाठ्यक्रम का हिस्सा है शाहजहांपुर का जुलूस लाट साहब

शाहजहाँपुर/होली के अवसर पर शहर में निकलने वाला जुलूस लाट साहब,आईएएस तथा आईपीएस प्रशिक्षण में पाठ्यक्रम का हिस्सा है,जुलूस के प्रबंधन और प्रशासन पर व्यापक और गहन अध्ययन कराया जाता है।इसकी तारीख के संदर्भ में कहा जा सकता है कि
शाहजहांपुर में होली पर जुलूस की परंपरा अंतिम नवाब अब्दुल्ला खां के 1708-1779 कार्यकाल से शुरू हुई थी। बेहद उदार मनोवृत्ति के नवाब अब्दुल्ला खां हिन्दू और मुसलमानों के प्रिय थे। पर पारिवारिक विवाद के कारण के उन्हें लंबे समय तक फर्रुखाबाद के नवाब वंशज के यहां शरण लेनी पड़ी थी। जब सन 1729 में 21 वर्ष की आयु में नवाब अब्दुल्ला वापस शाहजहांपुर आए तो जनसमुदाय ने उनका भव्य स्वागत किया, वह होली का वक्त था। तब नवाब अब्दुल्ला किले से बाहर आकर होली खेलते थे, उसी काल से नवाब साहब निकल आए का नारा प्रारंभ हुआ, इसके बाद होली पर जुलूस की पंरपरा की अब तक चलती आ रही है। अब इस जुलूस का नाम लॉट साहब रख दिया गया है।
शाहजहांपुर के एसएस कालेज के इतिहास विभाग के पूर्व अध्यक्ष डा. एनसी मेहरोत्रा के अनुसार, होली पर निकलने वाले जुलूस की परंपरा कब से शुरू हुई, इसकी कोई निश्चित तिथि की जानकारी इतिहास में नहीं मिलती है, लेकिन उनका मानना है कि यह परंपरा 1708 से 1779 के बीच अंतिम नवाब अब्दुल्ला खां के कार्यकाल से ही शुरू हुई। इतिहास डा. एनसी मेहरोत्रा के एक लेख के अनुसार, 1857 की क्रांति पर किले के नवाब शासकों ने धन वसूली के लिए हिन्दू और मुसलमानों से जबरदस्ती की। मार्च 1858 में हामिद हसन खां व उनके भाई अहमद हसन खां की हत्या कर दी गई। खलीलगर्वी में उनकी कोठी को जला दिया गया जो वर्तमान में जली कोठी के नाम से जानी जाती है। हिन्दू जमीदारों पर नियंत्रण रखना भी कठिन हो रहा था, हिन्दुओं विशेषकर ठाकुरों पर नियंत्रण के लिए बरेली से खान बहादुर खां के कमांडर इन चीफ मरदान अली खां एक विशाल सेना के साथ शाहजहांपुर आए, जिनका हिन्दुओं से संषर्ष हुआ। म्यूटनी नरेटिब्स डिस्ट्रक्ट के पेज नंबर छह के अनुसार, संघर्ष में अनेक हिन्दू मारे गए तथा उनके सिर काटकर किले के दरवाजे पर लटकाए गए तथा संपत्तियां लूट ली गईं।
1857 की क्रांति की विफलता के बाद मई 1858 में जीपी मनी डिस्ट्रक्ट मजिस्ट्रेट ने अपनी कचहरी एबीरिच इंटर कालेज के सामने स्थित नवाब अहमद अली खां के मकबरे में लगाई। इस दौरान किले को पूरी तरह से नष्ट करने के लिए उन्होंने आदेश दिए। 1859 में जो होली मनाई गई उसमें अंग्रेज अधिकारियों के उकसावे पर हिन्दुओं ने अपना रोष नवाबों को अपमानित करके व्यक्त किया। इसी का विकृत रूप आज भी होली पर निकलने वाले जुलूस में देखने को मिलता है। उस वक्त अंग्रेज शासक मुस्लिम विरोधी थे, क्योंकि 1857 की क्रांति का बिगुल मुस्लिम शासकों ने बजाया था।
होली पर प्राय: दो सम्प्रदायों के मध्य झगड़ा होता रहता था। शाहजहांपुर में मुन्नूगंज सराय से कुछ दूरी पर मोहल्ला भारद्वाजी में क्रुफ तोड़ इमामबाड़ा है, जिसका विवरण मोहम्मद सबीहिददीन की पुस्तक तारीख ए शाहजहांपुर में दिया गया है। 1930 के दशक में होली के नवाब के साथ हाथी, घोड़े व ऊंट भी निकलते थे। अल्पसंख्यक समुदाय की आपत्ति थी कि उनके निवास स्थान के नीचे थे तथा बेपर्दगी होती थी, इसलिए सरकार ने ऊंची सवारी के साथ नवाब के निकालने पर जुलूस पर पाबंदी लगा दी गई। परिणामस्वरूप भैंसागाड़ी पर ही जुलूस निकाला जाने लगा। 1947 में स्वतंत्रता के बाद भारत के बंटवारे तथा दो सम्प्रदायों के मध्य कटुता के साथ होली आई,लेकिन निकाले जाने वाले जुलूस पर अंकुश नहीं लग सका। हां, इतना जरूर हुआ कि जुलूस का नाम बदल दिया गया, अब इस जुलूस को लॉट साहब का जुलूस कहा जाता है।