जाति बनाम कर्म और व्यक्तित्व

यह प्रतिष्ठापित सत्य है कि कुछेक अपवादों को छोड़कर किसी व्यक्ति की सफलता या उसकी असफलता के पीछे उसकी जाति के बजाय अधिकाधिक महत्त्व उसके कर्मों का होता है।जिनके चलते ही व्यक्ति अपने को समाज में प्रभावशाली भूमिका में या तो स्थापित करने में कामयाब अन्यथा कि असफल होकर आमजन के रूप में स्वयमसिद्ध करता है।इसप्रकार यह कहना अनुचित नहीं होगा कि कोई भी व्यक्ति अपनी जाति से इतर अपने कर्मों के प्रभाव से अपने व्यक्तित्व का निर्माण करता है।तभी तो कृत्तित्व को व्यक्तित्व का दर्पण कहा है।
वस्तुतः यदि देखा जाय तो विश्व इतिहास ही नहीं अपितु भारत में भी ऐसे हजारों दृष्टांत उपलब्ध हैं।जिनसे यह सिद्ध किया जा सकता है कि व्यक्ति की सफलता का असफलता अन्यथा कि उसकी सामाजिक,राजनैतिक व आर्थिक समृद्धि या अपकीर्ति के पीछे उसके कर्मों का ही योगदान होता है।यथा एक साधारण से परिवार में जन्में और रंगभेद के शिकार होने के बावजूद अब्राहम लिंकन का अमेरिका जैसे देश का राष्ट्रपति बनना, महर्षि बाल्मीकि का आदिकवि के रूप में जगत में प्रसिद्ध होना,आदिवासी समाज की महिला द्रोपदी मुर्मू का भारत जैसे देश का राष्ट्रपति बनना, उत्तर प्रदेश में अनुसूचित समाज की महिला का माध्यमिक शिक्षा राज्यमंत्री बनना,मायावती का मुख्यमंत्री बनना आदि ऐसे उदाहरण हैं जो यह प्रमाणित करते हैं कि यदि व्यक्ति की सोच सकारात्मक,प्रयास निरंतर जारी और लक्ष्य स्प्ष्ट हों तो उन्हें समाज में प्रतिष्ठापित होने से कोई भी शक्ति रोक नहीं सकती है।
भाषा और साहित्य के क्षेत्र यदि जाति और व्यक्तित्व का पारस्परिक सम्बंध देखा जाय तो विलियम शेक्सपियर और कालिदास जैसों के नाम चिरस्मरणीय हैं।खास बात तो यह है कि दुनियां का सबसे बड़ा अंग्रेज़ी नाटककार शेक्सपियर जाति से लकड़हारा थे जबकि कालिदास जीवन के प्रारंभिक दिनों में बिल्कुल गंवार थे।यदि जाति को सफलता के महत्त्वपूर्ण घटक के रूप में देखा जाय तो शेक्सपियर को कभी भी इतना महान नाटककार नहीं होना चाहिए था किंतु यदि उनके प्रयास और कर्मों का आंकलन किया जाय तो निःसन्देह यह बात प्रमाणित होती है कि व्यक्तित्व के विकास में कर्मपथ महत्त्वपूर्ण होते हैं,जाति आधारित घटिया सोच नहीं।
जाति और कर्म में विभेद करते हुए महात्मा कबीरदास ने सदैव कर्म को सर्वोच्च स्थान प्रदान करते हुए कहा है कि-
"ऊँचे कुल का जन्मिया, करणी ऊंच न होय।
सुवरन कलश सुरा भरे,साधू निंदा होय।।"
स्प्ष्ट है कि महात्मा कबीरदास ऊंचे कुल(ऊंची जाति) की तुलना में उच्च कर्मों को प्रधानता देते थे।दृष्टांत स्वरूप में उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा है कि भले ही सोने के घड़े में मदिरा भर दें किन्तु इससे कलश की बजाय सुरा भरने वाले साधू की निंदा होती है अर्थात उसका सामाजिक अपमान होता है,उसके व्यक्तित्व पर आंच आती है।कबीरदास जी बड़प्पन अर्थात व्यक्तित्व की श्रेष्ठता को स्वयम में दर्पण मानते हुए कहते हैं कि-
"बड़े बड़ाई ना करें,बड़ी न बोलें बोल।
सोना कब कहता भला,लाख टका है मोल।।"
इसप्रकार कहा जा सकता है कि व्यक्ति का मोल उसके अपने गुण होते हैं,न कि वंशानुक्रम से प्राप्त जाति या धर्म।भारतीय वाङ्गमय भी इसी नक्शेकदम का अनुसरण करते हुए निम्न दृष्टांत प्रस्तुत करते हैं-
जन्मना जायते शुद्र: संस्कारात द्विज उच्यते।
अर्थात जन्म के आधार पर सभी मनुष्य एक प्रकार एक ही श्रेणी के होते हैं किंतु कालांतर में संस्कारों के अर्जन और उनके प्रभाव से उनकी कोटियाँ भिन्न भिन्न प्रकार की होती हैं।यहां यह लिखना समीचीन लगता है कि सूर्यवंशी क्षत्रिय कुल में जन्म लेने वाले प्रभु श्रीराम,भगवान महावीर व तथागत गौतम बुद्ध भले ही राजवंशों के राजकुमार रहे हों किन्तु आज उनकी व्यापकता व सार्वभौमिक स्वीकार्यता के पीछे उनके राजवंश नहीं अपितु उनके अपने गुणधर्म हैं,त्याग हैं, औदार्य हैं,मर्यादाओं के पालन हैं।
सत्य तो यह है कि कोई भी व्यक्ति श्रेष्ठ या महान अपने सद्कर्मो की बदौलत बनता है,जाति से नहीं।किन्तु स्वयम को निम्नवर्णी समझने वाला व्यक्ति भी यदि गुणों के अर्जन से महान होने पर यदि विद्वेषकर्मों द्वारा अपने विरोधियों या उच्च कुलों के लोगों का उत्पीड़न करता है तो उसकी महानता कदापि शोभायमान नहीं होती है।ऐसे लोगों को तो और सजगतापूर्वक ऐसे कार्य करने चाहिए जिससे कि उनके वंश व जाति के लोग स्वयम को गौरवान्वित समझते हुए उनसे प्रेरणा लें और अपनी अपनी योग्यताओं को प्रमाणित करते हुए आगे बढ़ें।उदाहरणार्थ मगध नरेश घनानंद जोकि नापित राजा था,उसने यही भूल की थी।परिणाम स्वरूप उसका हश्र क्या हुआ आज पूरी दुनिया जानती है।जबकि घनानन्द ने राजा का पद अपनी जाति के आधार पर नहीं अपितु अपनी योग्यता और क्षमता की बदौलत पायी थी।किन्तु कालांतर में उसने अपनी शक्तियों का प्रयोग अपनी जाति का उद्धार व विकास करने की बजाय अन्य लोगों के शोषण हेतु करना शुरू कर दिया,जोकि उसके पतन का कारण बना।इतना ही नहीं जाति एवम श्रेष्ठता के परिप्रेक्ष्य में श्रीरामचरितमानस में वर्णित कागभुशुण्डि और गरुड़ संवाद भी एक जीवंत उदाहरण है।जो यह शिक्षा देता है कि पक्षियों में अति हेय स्थान प्राप्त कौवा भी गुरुकृपा,भगवदकृपा और अपने श्रेष्ठ कर्मों से पक्षियों के राजा तथा स्वयम नारायण के वाहन गरुड़ को भी मोह,भ्रम,गर्व,दर्प,अभिमान,अहंकार आदि शत्रुओं से सावधान रहने की शिक्षा दे सकता है अर्थात रंक भी राजा,निम्न जाति में उत्तपन्न व्यक्ति भी गुरु जैसे समान्नित आसन को प्राप्त कर सकता है।अतएव कभी भी अपनी जाति को हेय नहीं मानना चाहिए अथवा उच्च जाति का होने का अहंकार नहीं होना चाहिए क्योंकि पूजा गुणों की होती है,सद्कर्मों की होती है,जाति की नहीं।जैसे ब्राह्मण कुल में उत्तपन्न रावण को राक्षस की संज्ञा दी जाती है जबकि कौवा कागभुशुण्डि को सर्वत्र पूजनीय वंदनीय माना जाता है।
जाति प्रथा यद्यपि विश्वव्यापी और सभी धर्मों के मूल में पायी जाती है,तथापि इसे विकास व उपलब्धि का मूलाधार नहीं माना जा सकता।यदि कोई जाति के गणित के सहारे सफलता को प्राप्त भी करता है तो वह उदाहरण होने की जगह अपवाद कहा जा सकता है।अतएव कर्म आधारित श्रेष्ठता ही सर्वकालिक सफलता का मूल रहस्य है,जाति नहीं।
-उदयराज मिश्र
नेशनल अवार्डी शिक्षक