मेरा खोया बचपन !

(संस्मरण- प्रीति गौड़ "मगन") मुझे लेखन का शौक बचपन से था। इस शौक के होने की कुछ खास वजह थी। जब मै अपने पड़ोस के शिशु मंदिर विद्यालय में पढ़ती थी मेरी और मेरी सहेली प्रियांका की खूब पटती थी। सुबह से छुट्टी होने तक हम साथ - साथ रहते थे। शिशु 'क' कक्षा में मै प्रथम श्रेणी से पास हुई और प्रियांका तृतीय श्रेणी से वो उदास हो गई अपना कम नंबर देखकर, उसे उदास देखकर मेरा भी मन बैठ सा गया। करती भी क्या मै? उसे मिल चुके नंबर में कोई संशोधन का रास्ता न बचा था। "आगे की कक्षा में और ज्यादा मेहनत करना, देखना' तुम भी प्रथम आओगी" उसको मै यही दिलासा दी। शिशु 'ख' कक्षा का परिणाम आया वो प्रथम श्रेणी से पास होकर बेहद खुश हुई, लेकिन मै हिन्दी विषय में कम नंबर आने से फेल हो गई। अब हम दोनों को अलग - अलग कक्षा में बैठने को कहा गया। मुझे तो उसकी आदत सी हो गई थी। सुबह पहुंचते ही मै उसके पास कक्षा प्रथम में जाकर बैठ जाती थी। हाजिरी के समय मुझे जबर्दस्ती गोद में उठाकर आचार्य जी! शिशु 'क' कक्षा में लाकर बिठा देते थे ओर तब मेरा रोना शुरू हो जाता था, चुप तब तक न होती थी जब तक कि मुझे वापस प्रियांका के पास जाने को न कहा जाता। देखते- देखते एक दिन प्रथम कक्षा में आकर प्रधानाचार्य जी! मुझे समझाते हुये कहें- " बिटिया! तुम फेल हो गई अबकी बार, इसलिए तुमको 'शिशु - ख' में फिर से पढ़ना है और ज्यादा अंक लाना है, ताकि पिछली बार की तरह प्रथम श्रेणी से पास हो जाओ, फिर कक्षा प्रथम में बैठना तुम।" उनकी ये बात कुुछ ही समझ आई थी मुझे। तब मैने अपनी बात कही- " आचार्य जी! मै फेल हुई हूं! पर प्रियांका तो पास है न!, फिर आप उसे मेरे साथ 'शिशु - ख' में बैठने देेंगे न ?" आचार्य जी! मेरी बात समझ चुके थें। उन्होंने प्रियांका से सवाल करते हुये कहा- " बिटिया प्रियांका! तुम प्रीति! के साथ 'शिशु- ख' में फिर से पढ़ोगी? ये तुम्हारी दोस्त है न! तुम दोनों साथ-साथ रहते हो" आचार्य जी! हमारी दोस्ती को परख रहे थें। लेकिन उस समय मै समझ न पाई थी उनकी इस बात को। प्रियांका ने जवाब दिया- "आचार्य जी! मै तो पास हूं वो भी प्रथम श्रेणी से फिर मै 'ख' में दूबारा क्यों पढूं? प्रीति! तुम फेल हो इसलिए तुमको फिर से 'ख' में पढ़ना पड़ेगा, आज से तुम अपनी कक्षा में बैठना" उसने मेरी तरफ नज़र घुमाते हुये कहा। उसकी बात सुनकर मेरी आँखों से आंसू छलक पड़े, कुछ भी कहने से होंठ कपकपाने लगें, कुछ कह भी न पाई, बस रोती रही, इंतजार था आचार्य जी! कब जाने को कह दें ? ओर मै अपनी कक्षा में जाऊं। कुछ देर तक हम दोनों को प्रधानाचार्य जी! खामोश देखते रहे फिर मेरे सर पर हाथ रखकर कहें- "हमारी प्यारी सी बिटिया बहुत ही भोले स्वभाव की है आज इसका दिल टूटा तो आगे चलकर ये टूट जायेगी, इसके दिल में कड़वाहट पनपने की संभावना हो सकती है? हमे ऐसी परिस्थिति को आने से रोकना होगा। ये एक शिक्षक का दायित्व है! फिर मेरे आंसू पोछते हुए कहें- "बिटिया अब तुम कक्षा प्रथम में ही पढ़ो ओर अपनी सहेली प्रियांका के साथ बैठो, अब तुम्हें 'शिशु - ख' में पढ़ने की जरूरत नहीं! " इस प्रकार मुझे पास कर दिया गया, बावजूद इसके मै खुश न थी, दोस्ती से मेरा भरोसा टूट चुका था, प्रियांका की बात सुनकर ओर मैने मन ही मन संकल्प लिया कि- "अब जीवन में कभी दोस्ती नहीं करूंगी, किसी से भी, हां! लेकिन अगर मुझसे कोई दोस्ती करता है तो मै उसकी दोस्ती की कद्र जरूर करूंगी, बस खुद किसी से दोस्ती नहीं करूंगी"। प्रधानाचार्य जी! को दु:ख ओर पछतावा न हो जो वे मेरे लिए किये। इसलिए मै झूठी मुस्कान सजाये प्रियांका के साथ कक्षा प्रथम में बैठ गई। कुछ लड़के लकड़ियां मुझे चिढ़ाने भी लगे थें। उस दिन से कि' बेचारी रो रो कर पास हो गई.......रो.........नी....., क.....हीं!.....की। ये सब मै! अपने "सोच की कलम से मन के कागज पर" नोट कर रही थी कि' जब मै बड़ी हो जाऊंगी तब मै भी कहानी लिखूंगी। जैसे किताबों में लिखी होती है। मुझे यही लगता था कि किताबों में लिखी गईं कहानियाँ , कविताएँ सब सच की आधार पे होती हैं। इसलिए मैंने भी अपनी कलम को अपनी आपबीती सुनाई ओर वो लिखती गई। काश बचपन के वो सुहाने दिन फिर लौटकर आ जाएं!