कानपुर बिकरु ...... फाइनल पारी। अदालत के स्टेडियम से।

*कानपुर का बिकरू......*
फाइनल पारी अदालत के स्टेडियम से,
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विकास दुबे के एनकाउंटर के बाद भी बिकरु का नाम अलग-अलग तरीकों से लिया जा रहा है। सरकार के पक्ष कार और पार्टी के लोग,
विकास दुबे के नकारात्मक चरित्र चित्रण को ,
*आवाम और अदालत को सिर से पांव तक समझाने में लगे हुए हैं।*
अपने को सही ठहराने की पुरजोर मेहनत जारी है.....

फिर भी अदालत ये कहती है कि 'मुझे विकास दुबे के बारे में मत बताओ' ।
*देश लॉ एंड ऑर्डर से चलता है*:
अदालत के कड़क बयानी से कानून व्यवस्था के जानकार,
अदालत की मंशा बहुत अच्छे से समझ रहे हैं ।
*अब तक अदालत शांत थी।*:
अब यहीं से उसका रोल शुरू हो रहा है,
जब याचिका पर एक्शन शुरू हुआ।
आज अदालत सक्रिय हुई....
जिसको किसी जमाने में बेहद नजरअंदाज किया गया था।
*न्याय देवी की आंखों पर काली पट्टी चढ़ी होने के बाद भी ,*
वे कितना बारीक देखती हैं । इसका नमूना आने वाले कल में ज़रूर देखने को मिलेगा.।
वहीं दूसरी तरफ सरकार की तरफ से वकालत करने वाले वकील कहते हैं .....
*यदि इस एनकाउंटर की जांच की जाती है तो पुलिस का मनोबल गिरेगा !!*
लेकिन अदालत का कहना है कानून व्यवस्था को संभालना प्रदेश सरकार की ज़वाबदारी है।
*कानून के साथ खिलवाड़ करके कानून व्यवस्था को मेंटेन करना निसंदेह मानवाधिकार और अदालत की तौहीन है।*
सरकार के वकील का यह दलील देना कि ,
इससे पुलिस का मनोबल गिरेगा। *तो क्या पुलिस के मनोबल को बनाए रखने के लिए अदालत सरकार की तरह अपने चरित्र को संदेह के दायरे में लाना पसंद करेगी?*
विकास दुबे अपराधी था,
शातिर था ।
*समाज पर एक दाग था।* आतंकवादी तबीयत का नमूना था।
मीडिया और सरकार तथा पुलिस की आंखों से ऐसा ही प्रतीत होता है ।
*यहां तक कि अदालत भी उसे संगीन अपराधों का अपराधी मानती है।*
तो क्या पुलिस को अदालत का रोल करना चाहिए ?
ऐसे अपराधी की जमानत हो जाने पर अदालत को बेहद आश्चर्य है।
विकास दुबे जो कानून और मानवता का गुनहगार था ।
पुलिस ने उसका फै़सला कर दिया।
*अब अदालत को अपने अस्मिता की चिंता है .*:
कि बगैर उसके मुहर के किसी अपराधी के बॉडी में बुलेट भर देना,
*पुलिस या हुकूमत की निरंकुशता नहीं तो क्या है ?*
काल के गाल में समा चुका विकास दुबे अपनी पारी खेल चुका .
राजनीतिज्ञ कभी इस दल के, कभी उस दल के ,
सबने अपनी अपनी पारी खेली।
*जब पुलिस की बारी आई तो एस.टी.एफ. ने भी अपनी बेबाक ट्रेनिंग और बहादुरी का नमूना पेश किया .*......
दलदल, कीचड़ ,भैंसों का झुंड, और असलहा छीनकर भागने वाले दुर्दांत को ,
हमारी मित्र पुलिस ने पीछे से ललकार कर,
आत्मरक्षा के चलते गोली मार दिया ।
और वह तीनों गोलियां जाकर
*आत्मसमर्पण करने वाले अपराधी के सीने में सामने से जा घुसी , ।*

और अपने चाहने वालों से बधाइयां थामीं।
एक बार लगा सारी कहानी थम गई ।
*लेकिन अब बारी है अदालत की*:
जिसके सामने सत्ता पक्ष के वकील की,
घिसी पिटी दलील ,
बचकाना कमजोर और बेहद हास्यास्पद प्रतीत होती है कि.....
*यदि इस एनकाउंटर की जांच की जाती है तो .....*
पुलिस का मनोबल गिरेगा ।
ऐसी दशा में पुलिस का मनोबल बढ़ाने के लिए,
*इस तरीके के और कितने एनकाउंटर की जरूरत है ?*
काबिल वकील साहब को बताना चाहिए ।
अपनों का पोषण और गैरों का शोषण,
के नीति के तहत ,
अगर कोई भी सरकार अपराधियों को अपराधी ही मानकर चलें,
*उसमें अपने और पराए का भेदभाव ना समझे ।*:
तो इस तरीके के हालात न पैदा हो ।
*खास तौर पर तब जब गंभीर अपराधों के अपराधी, सदन में माननीय बने बैठे हो .*!
तब लोकमन में संदेह का पैदा होते रहना आश्चर्य की बात नहीं।
*जिस अखाड़े में अगले पहलवान से हाथ मिलाते ही दूसरे पहलवान को पसीने छूट जाते हो*!
वह कितना बढ़िया लड़ेगा ?
इसका अंदाजा समझदार दर्शक लगा सकता है ।
फिलहाल विकास दुबे के एनकाउंटर की जांच अगर अदालत अपनी मंशा के अनुरूप करा ले जाती है तो .....
*भविष्य में अपनी साख ऊंची करने के लिए*:
कभी भी कोई हुकूमत या पुलिस, माननीय अदालत और मानवाधिकार को भूलकर ,
*कानून को हल्के में लेने की भूल नहीं करेगा ।*
अपराधी कोई हो ।
उसे सजा मिलनी चाहिए ।
*पुलिस की मनगढ़ंत कहानियों के दम पर*:
अपराध करने का लाइसेंस कहां तक जायज ?
यह सोचना माननीय अदालत का काम है!

*फिलहाल संबंधित एनकाउंटर कितना सही है, और कितना गलत ?*
इसका निर्णय करने के लिए अदालत अपनी कमर कस चुकी है ,
*मिस्टर साल्वे इस मामले को कैसे सॉल्व करेंगे ?*
अपने आप में गंभीर विषय है।
कानपुर और उज्जैन के बीच में खेले गए निरंकुशता के खेल को,
हर बाजी को .....
*दर्शकों ने कभी तालियां बजाकर,*
तो कभी रो कर संवेदना ज़रुर प्रकट की है!
फिलहाल अंतिम पारी अदालत की है ।
बहादुरी और मेडल ......
का इतिहास रचने वाले लोगों को ,
*न्याय के मंदिर से ज़हर मिलेगा कि अमृत यह भविष्य के गर्भ में है ।*

डॉ अनवर

क्राइम ब्यूरो!

अयोध्या मंडल।