आखिर किसे माना जाए साधुओं का हत्यारा ?

आखिर किसे माना जाए साधुओं का हत्यारा ?
- अराजक्ता की कोख से प्रकट हुआ पालघर हत्याकांड दरिंदो की भीड़ ने 2 साधुओं समेत एक ड्राइवर की ली जान
- पुलिस के समक्ष हत्यारे दरिंदो ने खेली खून की होली आखिर लाॅक-डाउन के बाउजूद कैसे घरों से निकल कर इक्टठा हो गए अराजक्ता के शैतान
- वायरल वीडियो ने खोली महाराष्ट्र पुलिस की पोल नरपिशाचों के सम्मुख खाकी ने हांथ पकड़ कर पेश कर दिया जिंदा इंसान
- जांच की बात कहकर पुलिस द्वारा टाल दी गई मोंब लिंचिग जैसी गंभीर वारदात कार्यवाही के नाम पर पुलिस कर्मियों को मात्र किया गया निलंबित
- पुलिस अभिरक्षा में 2 संत और ड्राइवर को ले जाया गया था पालधर के रेंजर ऑफिस आखिर फिर कैसे हो गया इतना बड़ा जगन्न अपराध
महोबा, (रितुराज राजावत)ः कहतें हैं भीड़ की न तो कोई शक्ल होती है औन न ही दीन-धर्म औऱ इसी बात सबसे ज्यादा फायदा माॅब लिचिंग जैसी वारदात को अंजाम देते इंसीनी रूप में रहने वाले शैतानों द्वारा उठाया जाता है। इंसानी शक्लों में रहने वाले इन नरपिशाचों को आखिर उकसाता कौन है और इन्हे उकसाया कैसे जाता है इस सवाल का जवाब तलाशना जितना कठिन माना जाता है उतना दरअसल है नही। माॅब लिचिंग के मामले में अगर हम बात करें तों कानून जैसा शब्द दिन दहाड़े खून की होली खेलने वालों के सामने अपना वजूद तलाशता हुआ अब नजर आने लगा है। 2014 से लगाकर आज तक इस तरह की नृशंग वारदात के आकड़े 134 से अधिक जा पहुचें हैं। 20 मई 2015 से जारी माॅब लिचिंग की ये कलंकित गाथा न तो अभी तक थम सकी है और न ही थमने का नाम ले रही है। एखलाख से लगाकर पहलू खान और उमर खान जैसे विशेष समुदाय से जुड़े व्यक्तियों से लगाकर 134 मामलों में 50 प्रतिशत से ज्यादा बार मुस्लिम समुदाय से जुड़े लोगों को निशाना बनाया जा चुका है। जिसमें 50 से अधिक व्यक्तियों को अपनी जांन तक गवानी पड़ी है। पूर्व में इस तरह की वारदातों को समुदाय विशेष से जोड़कर देखा जाता था लेकिन महाराष्ट्र के पालघर में साधुओं के खून से खेली गई होली ने भीड़ ना तो जाति देखती है औऱ ना ही धर्म जैसे प्रमाण पर अपनी मोहर लगा दी है। इस पूरे हत्याकांड को गौर से खंगालने पर बहुत से सवाल उठ खड़े हुए हैं। अपने गुरू के अंत्योष्टि में पहुच कर अंतिम दर्शन के अभिलाषा रखने वाले इन साधुओं को पुलिस अभिरक्षा मिलने के बाउजूद भी आखिर कैसे निशाना बना कर मौत के घाट उतार दिया गया। कोरोना वारिर्यस के रूप में फूल की वर्षा कराकर अपना वजूद ओर सम्मान बढ़ाने वाली खाकी अखिर इस पूरे घटनाक्रम के दौरान चुपचार मूकदर्शक क्यो बनी रही। चोरी जैसी छोटी और आम वारदात का आरोप इन साधुओं पर लगाकर मौत के मुहाने में जबरन झोंक देने वाले राक्षसों का पुलिस ने क्यो और किन कारणों के चलते विरोध क्यों नही किया । कानूनी कार्यवाही का हवाला देते हुए 100 से अधिक लोगों को पुलिस द्वारा अपनी हिरासत में तो लिया गया लेकिन उन दोषी पुलिस कर्मियों का क्या जिन्होने बूढ़े बुजुर्ग साधु को जबरन खून के प्यासे नरपिशाचों के समक्ष पेश कर दिया गया । क्या पुलिस कर्मियों को संस्पेड करने जैसी आम कार्यवाही करने से खाकी पर लगे खून के धब्बे मिट सकेंगें। इस पूरे हत्याकांड पर जो सबसे अहम और जरूरी सवाल है वो है ये की शोशल प्लेटफार्म पर वीडियो वायरल होने के बाउजूद भी उन पुलिस कर्मियों पर तत्काल हत्या का मुकदमा न दर्ज कर जांच कराने जैसेी पुलिसिया पद्धति का अनुशरण कर मुख्य रूप से दोषियों को बचाने की शाजिस महाराष्ट्र पुलिस द्वारा क्यों रची जा रही है। इस हत्याकांड को अंजाम देने में अराजक भीड़तंत्र का जितना योगदान रहा है उतने ही दोषी वो पुलिस कर्मी भी माने जाने चाहिए जिन्होने तीन व्यक्तियों की जांन बचाने की कोशिश मात्र इसलिए नही की क्योकी खाकी पहनकर संविधान की शपथ लेने वाले कर्मियों को दूसरों से ज्यादा अपनी जांन की परवाह थी। अब आखिर किसे माना जाए साधुओं का हत्यारा किसे माना जाए इसका दोषी।