हारा वहीं, जो लड़ा नहीं

हारा वहीं, जो लड़ा नहीं

सवाई माधोपुर। जिंदगी की लड़ाइयों में हार कभी सबसे बड़ी त्रासदी नहीं होती, बल्कि असली त्रासदी तब शुरू होती है जब इंसान लड़ने से पहले ही हथियार डाल देता है। आज के दौर में चुनौतियाँ हर मोड़ पर मौजूद हैं कभी नौकरी की होड़, कभी राजनीतिक, कभी सामाजिक दबाव, कभी निजी संघर्ष पर इन सबके बीच सबसे बड़ी कमजोरी है लड़ने की इच्छा का मर जाना।
दरअसल, हार उन लोगों की होती है जो संघर्ष से बचकर निकलना चाहते हैं। जो असफलता के डर में पहला कदम ही नहीं उठाते, वे मंज़िलों पर हक़ कैसे जताएँ। इतिहास गवाह है कि जीत हमेशा उन्हीं की हुई है जिन्होंने चोटें खाकर, बार-बार गिरकर, बार-बार उठकर अपनी राह बनाई है। जीत बहादुरों की धरोहर है, और बहादुर वही है जो लड़ने का साहस रखता है। चाहे दुनिया उसके खिलाफ हो, हालात कठोर हों या रास्ते अनिश्चित।

हमें यह समझने की ज़रूरत है कि मैदान में उतरने वालों के लिए तो हार भी सीख बनकर आती है, अनुभव बनकर ताकत देती है। लेकिन मैदान से बाहर बैठे लोग चिंताओं, बहानों, और डर की दीवारों में कैद लोग जीत का सपना भी खो देते हैं। उनका भविष्य उन्हीं असफलताओं का बंधक बन जाता है जिनसे वे कभी भिड़े ही नहीं।
हार उसी की लिखी जाती है जो लड़ने की कोशिश नहीं करता। समय की किताब में, जीत और हार का फैसला संघर्ष तय करता है, किस्मत नहीं। अगर कुछ बदलना है, कुछ पाना है, तो रोशनी की ओर पहला कदम आपको ही बढ़ाना होगा। क्योंकि मंज़िलें कदमों से मिलती हैं, सिर्फ़ सोचने से नहीं।

लेखक
किरोड़ी सांकड़ा